
ठंढ ने जब
धरा रौद्र रूप
कुम्भला गई
खिली- बिखरी धूप।
वर्षा भी मानो
निभा रही दोस्ती
करके सबको परास्त
संग कर रही मस्ती।
कोस रहे सब
जाने कहाँ से आई
ये वर्षा करमजली
पैदा हो गई जैसे
कोढ़ में खुजली।
हर कोई दुबका है
चोर की मानिंद
ठिठुरती रातों में
छिन जाती नींद।
ग़रीबों के साथ
वक्त ने किया
क्रूर मजाक
चीथड़ों में सिमटा बदन भी
कर रहा ताक- झांक।
दे रहा चुनौती
हर अगला पल
जाने इनमें से कौन
तोड़ देगा दम।
नंग- धडंग बच्चे
भर रहे सिसकारियां
जाने कब धूप
बिखरेगी अपनी रोशनियां।
पर है आस
इक दिन
ठंड ठिठुरेगी
और रोएगी वर्षा
प्रकृति की तो
बनी रहेगी
ये निरंतरता।

नीतू वर्णवाल