निर्धन, निष्प्राण, तू सृष्टि का विधान है,
अथक श्रम का जीवंत प्रमाण है।
भव्य प्रासाद तू बना रहा है,
शहनाई सुरीली भी बजा रहा है,
सपना किसी की सजा रहा है,
तेरा कोई ठिकाना ना मकान है।
नहीं डगर बने शहर में, तो पग कैसे उठ सकता है,
जग का है जो दुःखहर्ता, कैसे रुठ सकता है,
विराट समंदर को बाँधे, वो कैसे टूट सकता है,
दुर्भाग्य-सहचर, नहीं तेरा कोई सम्मान है।

अब भी बेड़ियों से तू जूझ रहा है,
इंतजाम दो वक्त का नहीं सूझ रहा है,
संवेदनहीन सत्ता भी अबूझ रहा है,
बेपरवाह कर्मयोगी, कष्ट से तू अनजान है।
बेघर हो पंछी भटक रहा है,
छोटा आशियाना और भी सिमट रहा है,
उजाड़ने को घोंसला गिद्ध कोई झपट रहा है,
निरीह अभागा क्या तेरी कोई पहचान है ?

तपते सूरज से भी आँख मिलाता है,
हिमनद पर भी मरने जाता है,
कार्य अहर्निश करके क्या पाता है,
रे मजदूर, नहीं मिलेगा कोई इनाम है।
तू है तो खेत खलिहान है,
तू है तो ब्रह्म में भी प्राण है,
तू है तो मानवता को भी अभिमान है,
फिर क्यों सब निःशब्द कि तू महान है ?
निर्धन, निष्प्राण, तू सृष्टि का विधान है,
अथक श्रम का जीवंत प्रमाण है।

– दिनेश कुमार
लेखक स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया लिमिटेड में प्रबंधक हैं.