नाम इंद्र,
ठिकाना जालोर ।
मासूम छोरा,
नौ साल का ।
छुआछुत की समझ नहीं जरा,
दलित अधम नीच जो मैं ठहरा ।।
वो आरामतलबी दिन,
होश था न हवास ।
अस्पताल के भी थे मजे कमबख्त,
और रुकी एक दिन श्वास ।।
कई को निजात तो मिला होगा ।
दलित अधम नीच जो मैं ठहरा ।
जिंदा रहता,
तब अमृत काल मनाता,
कलेजे पर रखके तिरंगा फहराता ।
चलो अच्छा हुआ,
मरने से मनाने का छुटकारा मिला ।।
जिंदा मानु या खुद को मरा,
दलित अधम नीच जो मैं ठहरा ।।
कैसे मनाऊं,
जश्न ए आजादी ।
खुल कर कैसे लूं सांस
करवा दूं ऐसी मुनादी,
समझा नहीं समाज का ककहरा,
दलित अधम नीच जो मैं ठहरा ।
मटकी का पानी पीना
घोड़ी पर चढ़ना
मूँछो पर ताव देना
मौत का कारण है ।
है मौत पर भी हर प्रहर पहरा,
दलित अधम नीच जो मैं ठहरा ।
बढ़ता हमारा दायरा,
शक के दायरे में है ।
बढ़ती शिक्षा आत्मबल,
शक के दायरे में है ।
हूं अब सहमा और डरा ।
दलित अधम नीच जो मैं ठहरा ।
पूंछता हूँ कि देश चलेगा,
किस किताब से ।
भेदभाव से,
या कानून की किताब से ।
युगों से कर रहा इन्तजार जीने का भरा पूरा,
दलित अधम नीच जो मैं ठहरा ।

लेखक व कवि –
दिनेश कुमार
ये लेखक के निजी विचार है.