अफगानिस्तान की वजह से इस समय दक्षिण एशिया में काफी सियासती हलचल है. यहां पर अब किसकी सरकार होगी, सबकी नजरें इसी पर गड़ी हैं. लोग अब ये मानने लगे है कि अफगानिस्तान पर एक बार फिर तालिबान का राज होगा. लेकिन अगर तालिबान सत्ता में आता है तो अफगानिस्तान में राजनितिक समीकरण पूरी तरह से बदल जाएंगे. क्योंकि तालिबान को बहुत ही कट्टर विचारों वाला संगठन माना जाता है.

1996 से लेकर 2001 तक अफगानिस्तान में तालिबानी शासन के दौरान मुल्ला उमर देश का सर्वोच्च धार्मिक नेता था. उसने खुद को हेड ऑफ सुप्रीम काउंसिल घोषित कर रखा था. तालिबान आन्दोलन को सिर्फ पाकिस्तान, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात ने ही मान्यता दे रखी थी. अफगानिस्तान को पाषाणयुग में पहुँचाने के लिए तालिबान को जिम्मेदार माना जाता है.
अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिकी नेतृत्व वाली सेना ने तालिबान को साल 2001 में सत्ता से बाहर का रास्ता दिखाया था. फिर इस साल अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने अफ़ग़ानिस्तान की धरती पर मौजूद सभी अमेरिकी सैनिकों को वापस बुला लिया जाये. इसके बाद यानि 20 साल बाद धीरे-धीरे तालिबानी समूह खुद को मज़बूत करता गया और अब एक बार फिर से इसका दबदबा देखने को मिल रहा है. महज़ दो महीने में तालिबान ने अफ़ग़ानिस्तान के एक बड़े इलाक़े को अपने कब्ज़े में ले लिया है. साल 2001 के बाद से तालिबान के कब्ज़े में इतना बड़ा इलाक़ा कभी नहीं रहा.
बीबीसी की एक रिपोर्ट के मुताबिक, अफ़ग़ानिस्तान के उत्तर, उत्तर-पूर्व और मध्य प्रांतों जैसे ग़ज़नी और मैदान वर्दक सहित पूरे देश में अब तालिबानी चरमपंथियों की स्थिति मज़बूत हुई है. वे कुंदूज़, हेरात, कंधार और लश्कर गाह जैसे प्रमुख शहरों पर भी कब्ज़ा करने के बेहद क़रीब हैं. तालिबान को बहुत ही कट्टर विचारों वाला संगठन माना जाता है. इसके बनने की कहानी भी कम दिलचस्प नहीं है जिसके पीछे पाकिस्तान से लेकर अरब देश तक शामिल रहे हैं. आइए जानते हैं कि तालिबान कौन हैं और कैसे ये अस्तित्व में आया.
तालिबान पश्तो भाषा का एक शब्द है जिसका अर्थ है स्टूडेंट यानी छात्र, खासकर ऐसे छात्र जो कट्टर इस्लामी धार्मिक शिक्षा से प्रेरित हों. तालिबान इस्लामिक कट्टपंथी राजनीतिक आंदोलन हैं. तालिबान का उभार अफगानिस्तान से रूसी सैनिकों की वापसी के बाद 1990 के दशक की शुरुआत में उत्तरी पाकिस्तान में हुआ था. कहा जाता है कि कट्टर सुन्नी इस्लामी विद्वानों ने धार्मिक संस्थाओं के सहयोग से पाकिस्तान में इनकी बुनियाद खड़ी की थी.
तालिबान को खड़ा करने के पीछे सऊदी अरब से आ रही आर्थिक मदद को जिम्मेदार माना गया. शुरुआती तौर पर तालिबान ने ऐलान किया कि इस्लामी इलाकों से विदेशी शासन खत्म करना, वहां शरिया कानून और इस्लामी राज्य स्थापित करना उनका मकसद है. शुरू-शुरू में जनता ने तालिबान में मसीहा देखा और कई इलाकों में कबाइली लोगों ने इनका स्वागत किया. इस संगठन के सदस्य तेजी से बढ़े और देश के दक्षिण-पश्चिम इलाकों में इसका तेजी से विस्तार हुआ. 1994 में अफगानिस्तान के भीतर तालिबान एक शक्तिशाली आंदोलन बन गया था. धीरे-धीरे उसने बाकी हिस्सों को भी अपने गिरफ्त में लेने की शुरुआत की.
साल 1995 में तालिबान ने ईरान की सीमा से लगे हेरात प्रांत पर अपना नियंत्रण कर लिया. इसके बाद 1996 में काबूल पर भी इसका अधिकार हो गया. साल 1998 आते-आते अफगानिस्तान के 90 प्रतिशत भूभाग पर तालिबान का कब्जा हो गया था. लेकिन बाद में कट्टरता ने तालिबान की ये लोकप्रियता भी खत्म कर दी लेकिन तब तक तालिबान इतना पावरफुल हो चुका था कि उससे निजात पाने की लोगों की उम्मीद खत्म हो गई. अपने शासन में तालिबान ने शरिया कानूनों को सख्ती से लागू करना शुरू किया.
इस बीच अफगानिस्तान की सरकार और तालिबान के बीच कई सारे युद्ध हुए. इसी बीच 1996 के आसपास ओसामा बिन लादेन दोबारा अफगानिस्तान में आता है, जहां उसका तालिबान के नेताओं ने पुरजोर ढंग से स्वागत किया. इसके बाद ओसामा बिन लादेन ने तालिबान के भीतर आतंकवादियों को भर्ती करने की शुरुआत की. इसे देखते हुए संयुक्त राष्ट्र संघ ने ओसामा बिन लादेन को पकड़ने के लिए प्रस्ताव पारित किया.
20 सालों तक अपनी पूरी ताकत लगा देने के बावजूद अमेरिका तालिबान को जड़ से खत्म नहीं कर पाया. अफगानिस्तान में आतंकवाद एवं तालिबान के खिलाफ लड़ाई में अमेरिका ने भारी भरकम राशि खर्च की है. अमेरिका-तालिबान की लड़ाई में निर्दोष नागरिकों को अपनी जान गंवानी पड़ी. अमेरिका ने तालिबान के बड़ा नेता मुल्ला उमर को 2016 में मार गिराया. इसके बाद यह संगठन हिब्दुल्ला खुन जादा की अगुवाई में आगे बढ़ता गया.