इंडिया और भारत का फर्क बताता लॉक-डाउन

संपादकीय

आज पूरा विश्व कोरोना महामारी से जूझ रहा है. भारत में भी यह भीषण महामारी बड़ी तेजी से पाँव पसार रही है. अभी तक भारत में कोरोना से संक्रमित रोगियों का आंकड़ा लगभग एक लाख तक पहुँचने को है और तीन हजार से ज्यादा लोग इस बीमारी से मर चुके हैं. एक अनुमान के मुताबिक मई महीने के अंत तक यह बीमारी करीब दो लाख भारतीयों को अपने चंगुल में ले चुका होगा. आज हर व्यक्ति इस भयानक संक्रामक बीमारी के दुष्प्रभाव एवं संक्रमण की कल्पना मात्र से ही भयभीत है.

कोरोना के तेजी से बढ़ते मामले (साभार-https://www.worldometers.info/ )

कोरोना के खिलाफ इस जंग में भारत और इंडिया के बीच का अंतर स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है. एक तरफ भारत जिसमें समाज का कमजोर वर्ग अर्थात गरीब किसान, दिहाड़ी मज़दूर, होम-गार्ड का सिपाही, रेहड़ी-पटरी वाले हैं, वहीं दूसरी तरफ इंडिया, जिसमें रसूखदार वर्ग जिनके पास धन, सामर्थ्य, संसाधन और सुविधाओं की सहज पहुँच है. इंडिया में बड़े-बड़े नेता, अप्रवासी भारतीय, उच्च पदों पर आसीन सरकारी पदाधिकारी आदि शामिल हैं.

देश में 25 मार्च से घोषित लॉक-डाउन में, महीने भर से फंसे लाखों गरीब मज़दूर परिवार सहित चिलचिलाती धूप, बारिश और शासन के उपेक्षित बर्ताव के बीच पैदल ही घर जाने को मजबूर हैं. इसमें कई मज़दूर रास्ते में भूख और बीमारी से दम तोड़ रहे है और सड़क दुर्घटनाओं में अकारण ही जान गँवा रहे हैं. गरीब मज़दूरों को सड़क पर पुलिस द्वारा लॉक-डाउन के नाम पर प्रताड़ित और अपमानित किया जा रहा है.

पैदल चलते प्रवासी मजदूर (फ़ोटो-हिंदुस्तान टाइम्स)

दूसरी तरफ रसूखदारों को लॉक-डाउन में भी घूमने की अनुमति दी गई है और कोई तो कर्फ्यू घोषित इलाकों में अपनी बीबी को कार ड्राइविंग सिखा रहा है. एक माननीय जन-प्रतिनिधि को कोटा से बेटी को लाने के लिए प्रशासन द्वारा आनन-फानन में लॉक-डाउन के नियमों को ताक पर रखकर अनुमति प्रदान की गयी. बिहार के अररिया में, जिला कृषि पदाधिकारी से पास मांगने की हिमाकत करने वाले होम गार्ड जवान को कान पकड़कर उठक-बैठक कराया गया.

कान पकड़कर उठक-बैठक करते होमगार्ड जवान (फ़ोटो-अमर उजाला)

राज्य-सीमाओं के सील हो जाने के कारण हजारों मज़दूर राज्य सीमा पर फँस गए हैं. राज्य सरकार और प्रशासन द्वारा ना तो उनके रहने, खाने-पीने और ना ही उनके कोविड-19 के जाँच की व्यवस्था की गयी है. आज महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि बेबस एवं लाचार मज़दूर जाये तो जाये कहाँ ?

स्वयंसेवक समूह SWAN (Stranded Workers Action Network) द्वारा 17000 (सत्रह हज़ार) मज़दूरों पर किये सर्वे में यह पाया गया कि केवल 6 प्रतिशत मज़दूरों को ही लॉक-डाउन पीरियड का वेतन दिया गया, जिसमें पेंटर, वेल्डर्स और इलेक्ट्रीशियन जैसे आत्मनिर्भर लोग भी शामिल हैं. इसमें लगभग 99 प्रतिशत मज़दूरों को किसी भी सरकार की ओर से कोई रकम भुगतान नहीं की गयी है. करीब 50 प्रतिशत के पास तो केवल एक दिन के ही भोजन का प्रबंध था और 72 प्रतिशत ऐसे आप्रवासी मज़दूर थे जिनके पास 2 दिन से कम समय की रसद थी.

विडंबना देखिये कि एक ओर जहाँ पुलिस प्रशासन के लोग अमीरों के घर केक पहुँचाकर उनका जन्मदिन मना रहे हैं, वहीं दूसरी ओर एक गरीब गर्भवती महिला बीच सड़क पर बच्चे को जन्म देकर फिर से सैंकड़ो किलोमीटर की दुर्गम यात्रा पर निकल पड़ती है.

एक तरफ जहाँ आम नागरिकों के लिए भारतीय रेल ने सोशल डिस्टेंसिंग का हवाला देते हुए टिकट काउंटर खोलने से साफ मना कर दिया है, वहीं दूसरी तरफ माननीय विधायकों, सांसदों एवं उच्च पदाधिकारियों (एच.ओ.आर. धारक) के निर्बाध एवं सुगम सेवा के लिए कई बड़े स्टेशनों पर टिकट काउंटर खोल दिया है. इसका अर्थ यह हुआ कि कम पढ़े और गरीब लोग, जिन्हें ऑनलाइन की समझ नहीं है उनको टिकट काउंटर की सुविधा मयस्सर नहीं है.

एक तरफ जहाँ, वन्दे भारत मिशन के तहत विदेशों में फंसे आप्रवासी भारतीयों को सकुशल स्वदेश लाया जा रहा है. वहीं दूसरी तरफ गरीब मज़दूरों के पास टिकट के पैसे नहीं होने के कारण यात्रा से महरूम करते हुए एक ट्रेन को दस प्रतिशत रिक्त सीटों सहित चलाया गया.

वन्दे भारत मिशन के तहत घर लौटते आप्रवासी भारतीय(फ़ोटो-बिजनेस स्टैंडर्ड)

जहाँ एक तरफ विदेशों से लाये जा रहे प्रवासियों का खासा ख्याल रखा जा रहा है, तमाम मानक संचालन प्रक्रिया (एस.ओ.पी.) का पालन करते हुए इन्हें अपने-अपने घर सकुशल पहुँचाया जा रहा है. वहीं दूसरी तरफ भारत में ही फंसे प्रवासी मज़दूरों को घर पहुँचाने के लिए सरकारी तंत्र उदासीन और लापरवाह हैं. हजारों प्रवासी गरीब मज़दूर, महिला, बच्चे अत्यंत दयनीय स्थिति में घरों को पैदल ही लौटने को मजबूर हैं और इनका अनवरत पलायन, आज़ादी के समय हुए देश विभाजन से हुए पलायन का स्मरण कराता है.

ट्रेन की पटरियों पर बिखरे हुए रोटी (फ़ोटो-द टेलीग्राफ)

महाराष्ट्र के जालना से मध्यप्रदेश जा रहे 16 मज़दूर, 8 मई 2020 को सुबह तक़रीबन सवा पांच बजे माल-गाड़ी की चपेट में आ गए जिनसे इनकी दर्दनाक मौत हो गयी. यदि दिहाड़ी मज़दूरों को घर पहुँचाने का कार्य सरकार करती तो क्या इस हृदय विदारक अनहोनी के घटित होने की नौबत आती ? प्रश्न यह उठता है कि प्रधानमंत्री केयर फंड में जमा पैसों का क्या औचित्य रह जाता है ? भारतीय रेल द्वारा संचालित स्पेशल ट्रेनों का किराया राजधानी ट्रेन के किराये के बराबर है. नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर कई गरीब यात्री कई दिनों से घर जाने के इंतजार में पड़े हैं और यहाँ तक कि टिकट खरीदने के लिए वे अपने मोबाइल और कीमती सामानों को बेचकर किसी भी हालत में घर लौटना चाहते हैं.

एक तरफ सरकार कहती है कि वन्दे भारत मिशन के तहत लाये गए धनाढ्य अप्रवासियों के लिए लागत से कम किराया लिया गया, वहीं दूसरी तरफ मेहनतकश गरीब मज़दूरों को श्रमिक ट्रेन से जाने के लिए बढ़ा हुआ किराया वसूला गया.

एक तरफ न्यायालय जहाँ शराब की बिक्री पर पाबंदी नहीं लगाना चाहती है वहीं दूसरी तरफ केंद्र और राज्य सरकारों को मज़दूरों के जान-माल की क्षति को रोकने और घर तक सकुशल पहुँचाने के लिए विस्तृत दिशा-निर्देश देने को भी जरूरी नहीं समझती हैं.

कई राज्य सरकारें श्रमिक क़ानूनों को निलंबित कर बेबस मज़दूरों के शोषण के दरवाज़े खोल रही है. राज्य से बाहर जा रहे एवं लम्बे समय से फंसे बेबस मज़दूरों को घर जाने के सभी रास्ते अमानवीय रूप से बंद करने का प्रयास कर रही है. इनके ऊपर धनाढ्य फ़ैक्टरी मालिकों, रियल एस्टेट बिल्डरों का भारी दवाब है और साथ ही अपनी अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ करने की चिंता है.

कोरोना महामारी ने भारत और इंडिया के गहरे अंतर को उजागर कर दिया है. आज़ादी के तिहत्तर साल बीत जाने के बावजूद भी हमारे गरीब मज़दूर, किसान भाइयों की यह दयनीय स्थिति देश के सम्मान, क्षमता और सरकार के नियति पर सवालिया निशान लगाता है. आज हमलोग भारत को विश्व की सबसे द्रुत गति से विकसित होने वाली अर्थव्यवस्था होने का स्वांग करते हैं. हमलोग यह भूल जाते हैं कि ये मेहनतकश, लाचार, बेबस मज़दूर हमारे ही भाई-बंधु हैं. देश का एक बड़ा तबका खुद को असहाय और समाज की मुख्य धारा से कटा हुआ महसूस कर रहा है. इन अभागे मज़दूरों की मेहनत और लगन से देश की बुनियाद खड़ी है और इनके वोट से सरकारें बनती और गिरती है. इनके बिना तो लोकतंत्र का पर्व अधूरा है क्योंकि समाज का उच्च वर्ग तो मतदान के दिन, घर पर ही रहकर अपने परिवार के साथ छुट्टियाँ मनाता है. अपने देश के ही नागरिकों के साथ हो रहा दोहरा व्यवहार आम मानस के समझ से परे है और विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के गौरव पर करार तमाचा है. निश्चित रूप से हमारे स्वतंत्रता सेनानियों, महापुरुषों की दिवंगत आत्मा देशवासियों के साथ हो रहे भेदभाव से व्यथित हो उठती होंगी.

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